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    Home » Blog » रवींद्रनाथ टैगोर जयंती : जीवन गाथा और उनकी 5 सर्वश्रेष्ठ कविताएँ
    लाइफस्टाइल May 6, 2023

    रवींद्रनाथ टैगोर जयंती : जीवन गाथा और उनकी 5 सर्वश्रेष्ठ कविताएँ

    रवींद्रनाथ टैगोर जयंती
    रवींद्रनाथ टैगोर जयंती
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    रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता में हुआ था। रवींद्रनाथ टैगोर श्री देबेंद्रनाथ टैगोर और श्रीमती शारदा देवी के पुत्र थे। रवींद्रनाथ टैगोर जब युवा थे, तब उनकी मां का निधन हो गया। उनकी पत्नी मृणालिनी देवी थीं। उनके पिता एक यात्री थे और इसीलिए नौकर-चाकरों द्वारा उनका पालन-पोषण हुआ ।

      1901 में, टैगोर शांति निकेतन आश्रम चले गए और एक खुले क्षेत्र में स्कूल खोला। उन्होंने शिक्षण की गुरु-  शिष्य पारंपरिक पद्धति का पालन किया। स्कूल पांच छात्रों के साथ शुरू हुआ और वे पेड़ों के नीचे पढ़ाते थे। इस दौरान रवींद्रनाथ टैगोर की पत्नी और दो बच्चों का निधन हो गया। इस घटना ने उन्हें विचलित कर दिया और उन्होंने कविता कहानियाँ और नॉवेल्स  लिखना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उनका काम बढ़ने लगा और भारत के साथ-साथ विदेशों में भी उन्हें लोकप्रियता मिलने लगी  । 

    रवींद्रनाथ टैगोर को  साहित्य में नोबेल पुरस्कार भी मिला। रवींद्रनाथ टैगोर ने बंगाली भाषा में गीतांजलि लिखा है जिसके बाद में  अंग्रेजी में अनुवाद किया गया । उन्होंने 1878 से 1932 तक लगभग 30 देशों की यात्रा की। वहां वे अपने साहित्यिक कार्यों को अन्य लोगों तक ले गए जो बंगाली भाषा नहीं समझते थे। अंतिम अवस्था में रवींद्रनाथ टैगोर कई बीमारियों से ग्रस्त हो गए और 7 अगस्त, 1941 को उनकी मृत्यु हो गई।

    रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएं 

    अनसुनी करके तेरी बात
    न दे जो कोई तेरा साथ
    तो तुही कसकर अपनी कमर
    अकेला बढ़ चल आगे रे–
    अरे ओ पथिक अभागे रे।

    देखकर तुझे मिलन की बेर
    सभी जो लें अपने मुख फेर
    न दो बातें भी कोई क रे
    सभय हो तेरे आगे रे–
    अरे ओ पथिक अभागे रे।

    तो अकेला ही तू जी खोल
    सुरीले मन मुरली के बोल
    अकेला गा, अकेला सुन।
    अरे ओ पथिक अभागे रे
    अकेला ही चल आगे रे।

    जायँ जो तुझे अकेला छोड़
    न देखें मुड़कर तेरी ओर
    बोझ ले अपना जब बढ़ चले
    गहन पथ में तू आगे रे–
    अरे ओ पथिक अभागे रे।

    तो तुही पथ के कण्टक क्रूर
    अकेला कर भय-संशय दूर
    पैर के छालों से कर चूर।
    अरे ओ पथिक अभागे रे
    अकेला ही चल आगे रे।

    और सुन तेरी करुण पुकार
    अंधेरी पावस-निशि में द्वार
    न खोलें ही न दिखावें दीप
    न कोई भी जो जागे रे-
    अरे ओ पथिक अभागे रे।

     

    मेरा शीश नवा दो अपनी, चरण-धूल के तल में।
    देव! डुबा दो अहंकार सब, मेरे आँसू-जल में।
    अपने को गौरव देने को, अपमानित करता अपने को,
    घेर स्वयं को घूम-घूम कर, मरता हूं पल-पल में।

    देव! डुबा दो अहंकार सब, मेरे आँसू-जल में।
    अपने कामों में न करूं मैं, आत्म-प्रचार प्रभो;
    अपनी ही इच्छा मेरे, जीवन में पूर्ण करो।

    मुझको अपनी चरम शांति दो, प्राणों में वह परम कांति हो.
    आप खड़े हो मुझे ओट दें, हृदय-कमल के दल में।
    देव! डुबा दो अहंकार सब, मेरे आँसू-जल में।

     

    व्यर्थ है यह जलती अग्नि इच्छाओं की
    सूर्य अपनी विश्रामगाह में जा चुका है
    जंगल में धुंधलका है और आकाश मोहक है।
    उदास आँखों से देखते आहिस्ता क़दमों से
    दिन की विदाई के साथ
    तारे उगे जा रहे हैं।

    तुम्हारे दोनों हाथों को अपने हाथों में लेते हुए
    और अपनी भूखी आँखों में तुम्हारी आँखों को
    कैद करते हुए,
    ढूँढते और रोते हुए, कि कहाँ हो तुम,
    कहाँ ओ, कहाँ हो…
    तुम्हारे भीतर छिपी
    वह अनंत अग्नि कहाँ है…

    जैसे गहन संध्याकाश को अकेला तारा अपने अनंत
    रहस्यों के साथ स्वर्ग का प्रकाश, तुम्हारी आँखों में
    काँप रहा है,जिसके अंतर में गहराते रहस्यों के बीच
    वहाँ एक आत्मस्तंभ चमक रहा है।

     

    अरे भीरु, कुछ तेरे ऊपर, नहीं भुवन का भार
    इस नैया का और खिवैया, वही करेगा पार ।
    आया है तूफ़ान अगर तो भला तुझे क्या आर
    चिन्ता का क्या काम चैन से देख तरंग-विहार ।
    गहन रात आई, आने दे, होने दे अंधियार–
    इस नैया का और खिवैया वही करेगा पार ।

    पश्चिम में तू देख रहा है मेघावृत आकाश
    अरे पूर्व में देख न उज्ज्वल ताराओं का हास ।
    साथी ये रे, हैं सब “तेरे”, इसी लिए, अनजान
    समझ रहा क्या पायेंगे ये तेरे ही बल त्राण ।
    वह प्रचण्ड अंधड़ आयेगा,
    काँपेगा दिल, मच जायेगा भीषण हाहाकार–
    इस नैया का और खिवैया यही करेगा पार ।

     

    विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी
    वंचित कर उनसे तुमने की है रक्षा मेरी;
    संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में।

    अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको,
    आसमान, आलोक, प्राण-तन-मन इतने सारे,
    बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही,
    अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके।

    मैं तो कभी भूल जाता हूँ, पुनः कभी चलता,
    लक्ष्य तुम्हारे पथ का धारण करके अन्तस् में,
    निष्ठुर ! तुम मेरे सम्मुख हो हट जाया करते।

    यह जो दया तुम्हारी है, वह जान रहा हूँ मैं;
    मुझे फिराया करते हो अपना लेने को ही।
    कर डालोगे इस जीवन को मिलन-योग्य अपने,
    रक्षा कर मेरी अपूर्ण इच्छा के संकट से।।

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